अज़रबैजान में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में अमीर देशों ने जलवायु परिवर्तन निपटने के लिए विकासशील देशों की आर्थिक मदद करने का प्रस्ताव दिया है। जिसके तहत विकसित देश अब विकासशील देशों की मदद के रूप में 2035 तक सालाना 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर देंगे। यह प्रस्ताव उन देशों के दो समूहों के COP29 वार्ता में कक्ष से बाहर निकलने के कुछ घंटे बाद दिया गया, जो जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हैं।
बता दें कि यह पेशकश एक नए जलवायु वित्त पैकेज का हिस्सा है, जिसे देशों के समक्ष मंजूरी के लिए रखा जाएगा। यह राशि 2009 में किए गए 100 बिलियन डॉलर के वादे की जगह लेगी। हालांकि, यह 300 बिलियन डॉलर की पेशकश ग्लोबल साउथ के द्वारा तीन वर्षों की वार्ता में मांगी गई 1.3 ट्रिलियन डॉलर से बहुत कम है।
मसौदा समझौते में बाकू से बेलेम रोडमैप भी पेश किया गया है, जो अफ्रीका और अन्य विकासशील देशों के लिए महत्वपूर्ण है, ताकि 2035 तक 1.3 ट्रिलियन डॉलर के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वैश्विक वित्त व्यवस्था को समन्वित किया जा सके। वहीं इस मामले में मसौदे में कहा गया है कि देश 2035 तक सार्वजनिक और निजी, द्विपक्षीय और बहुपक्षीय, सभी प्रकार के स्रोतों से 300 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष जुटाएंगे। इसमें पेरिस समझौते के अनुच्छेद 9 का उल्लेख है, जो यह स्पष्ट करता है कि वित्तीय नेतृत्व विकसित देशों को करना चाहिए।
हलांकि इस मसौदे में 1.3 ट्रिलियन डॉलर का लक्ष्य है, लेकिन इसे प्राप्त करने के लिए सभी देशों को मिलकर काम करने के लिए कहा गया है, और यह सिर्फ विकसित देशों पर निर्भर नहीं होगा। विकासशील देशों से भी लक्ष्य को पूरा करने में मदद करने के लिए कहा जाएगा, लेकिन छोटे द्वीप देशों और कम विकसित देशों के लिए कोई विशेष वित्तीय आवंटन का जिक्र नहीं किया गया है।
असमानता को लेकर विकाससील देश
कम विकसित देशों (एलडीसी) और छोटे द्वीप देशों के गठबंधन के प्रतिनिधियों ने कहा कि उन्हें इस मसौदे पर परामर्श में शामिल नहीं किया गया और उन्हें अनदेखा किया गया है। वे इस असमानता को लेकर नाराज थे क्योंकि उन्हें जलवायु संकट से सबसे अधिक नुकसान हो रहा है, जबकि उनकी मांगों को नजरअंदाज किया जा रहा है। इस मामले में विकासशील देशों का कहना है कि उन्हें 2025 से हर साल कम से कम 1.3 ट्रिलियन डॉलर की आवश्यकता है, जो 2009 में वादा किए गए 100 बिलियन डॉलर से कहीं अधिक है।