इबोला वायरस से संक्रमित बंदरों पर एक दवा के सफल परीक्षण से उम्मीद जगी है कि यह मनुष्यों के लिए भी प्रभावी साबित हो सकती है। यह नई दवा इबोला के इलाज को अधिक किफायती और व्यावहारिक बना सकती है। साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, इबोला का प्रकोप मुख्य रूप से उप-सहारा अफ्रीका में देखा गया है। इस कारण इस बीमारी के इलाज को विकसित करने के लिए दवा कंपनियों को आवश्यक वित्तीय सहायता मिलना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा, संक्रमण की अनियमितता के कारण नैदानिक परीक्षणों को अंजाम देना भी चुनौतीपूर्ण रहा है। 2019 में इस वायरस के लिए पहली वैक्सीन को मंजूरी दी गई थी, जबकि दो अन्य अंतःशिरा एंटीबॉडी उपचार प्रभावी साबित हुए हैं। हालांकि, इनका भंडारण करने के लिए विशेष कोल्ड स्टोरेज की आवश्यकता होती है, जिससे इन्हें अफ्रीका के गरीब क्षेत्रों में उपलब्ध कराना कठिन हो जाता है।वैज्ञानिकों ने जिस एंटीवायरल दवा ओबेल्डेसिविर का परीक्षण किया है वह मूल रूप से कोविड-19 के लिए विकसित रेमडेसिविर का संशोधित रूप है। यह दवा वायरस के लिए आवश्यक एंजाइम को अवरुद्ध कर देती है, जिससे संक्रमण बढ़ने से रुक जाता है। परीक्षण के दौरान शोधकर्ताओं ने रीसस मैकाक और सिनोमोलगस मैकाक बंदरों को इबोला वायरस के मकोना संस्करण की अत्यधिक खुराक दी।
संक्रमण के एक दिन बाद 10 बंदरों को 10 दिनों तक रोजाना ओबेल्डेसिविर की एक गोली दी गई, जबकि तीन अन्य बंदरों को कोई उपचार नहीं दिया गया और वे संक्रमित होकर मर गए। इस दवा ने 80 फीसदी सिनोमोलगस मैकाक और 100 फीसदी रीसस मैकाक बंदरों को संक्रमण से बचाया, जो जैविक रूप से इन्सानों के काफी करीब माने जाते हैं। ओबेल्डेसिविर ने न केवल संक्रमित बंदरों के रक्त से वायरस को समाप्त किया, बल्कि उनके शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को भी सक्रिय किया। इससे न केवल अंगों की क्षति रोकी जा सकी, बल्कि एंटीबॉडी भी विकसित हुईं।शोधकर्ताओं ने यह भी उल्लेख किया कि भले ही परीक्षण में बंदरों की संख्या कम थी, लेकिन अध्ययन सांख्यिकीय रूप से मजबूत है। प्रयोग में उपयोग किए गए वायरस की खुराक इन्सानों के लिए घातक मानी जाने वाली मात्रा से 30 हजार गुना अधिक थी। इसके अलावा इस परीक्षण में कम संख्या में नियंत्रण समूह के बंदरों का उपयोग किया गया, जिससे अनावश्यक पशु मृत्यु को भी सीमित किया जा सका।