सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है कि यदि निर्वाचित विधानसभाओं से पारित विधेयकों को राज्यपाल या राष्ट्रपति अनिश्चितकाल तक मंजूरी देने से रोक दें, तो क्या अदालतें इस स्थिति में शक्तिहीन हो जाएंगी?
सीजेआई जस्टिस बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए संदर्भ पर सुनवाई कर रही थी। इस दौरान मध्य प्रदेश सरकार के वकील नीरज किशन कौल ने कहा कि इस विषय का समाधान संसद के जरिए होना चाहिए और अदालत को राज्यपालों या राष्ट्रपति पर समय सीमा थोपने से बचना चाहिए। महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, गोवा, छत्तीसगढ़ और हरियाणा राज्यों के वकीलों ने भी इस मत का समर्थन किया।
कौल ने तर्क दिया कि संविधान ने राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयकों पर विवेकाधिकार दिया है और इसमें किसी निश्चित समय सीमा का उल्लेख नहीं है। इस पर सीजेआई ने सवाल किया कि जब विधेयक विधानसभा के दोनों सदनों से पारित हो चुका है, तो राज्यपाल उसे अनिश्चितकाल तक रोके क्यों रखें?
महाराष्ट्र की ओर से पेश हरीश साल्वे ने कहा कि अनुच्छेद 201 की भाषा किसी समय सीमा को स्वीकार नहीं करती और राज्यपाल केंद्र व राज्यों के बीच संवाद का माध्यम हैं। उन्होंने यह भी जोड़ा कि न्यायपालिका उनकी शक्तियों की समीक्षा नहीं कर सकती।
सुनवाई के दौरान जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा ने सवाल उठाया कि क्या राज्यपाल धन विधेयक को भी रोक सकते हैं। साल्वे ने कहा कि ऐसा संभव है, हालांकि सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने स्पष्ट किया कि धन विधेयक तो अनुच्छेद 207 के तहत राज्यपाल की सिफारिश पर ही पेश होता है।
उत्तर प्रदेश और ओडिशा सरकारों की ओर से कहा गया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल पूर्ण स्वायत्तता रखते हैं। वहीं गोवा सरकार ने दलील दी कि न्यायपालिका विधेयकों को मान्य सहमति देने का विकल्प नहीं बन सकती। छत्तीसगढ़ की ओर से महेश जेठमलानी ने कहा कि राज्यपालों के लिए समय सीमा तय करना लगभग अपमानजनक होगा।
राजस्थान सरकार की ओर से अधिवक्ता मनिंदर सिंह ने कहा कि अनुच्छेद 200 के तहत सहमति देना विधायी प्रक्रिया का हिस्सा है और राज्यपाल शुरुआत में ही सहमति रोक सकते हैं। इसलिए इस प्रक्रिया पर परमादेश लागू करने का अधिकार अदालत के पास नहीं है।