Monday, August 11, 2025

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सदी के अंत तक आधे रह जाएंगे खेत, बढ़ती आबादी और जलवायु संकट से खाद्य सुरक्षा पर खतरा

दुनिया के खेत सिकुड़ रहे हैं, किसान कम हो रहे हैं और युवा पीढ़ी का खेती से मोहभंग गहरा रहा है। अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों की मानें तो वर्ष 2100 तक खेतों की संख्या आधी रह जाएगी, जबकि वैश्विक आबादी और खाद्य मांग तेज़ी से बढ़ेगी। भारत के लिए यह चेतावनी और गंभीर है—यहां हर दिन हजारों किसान खेती छोड़ रहे हैं और कृषि भूमि तेजी से घट रही है।
औसत किसान की उम्र 55, युवा नहीं आ रहे खेतों में
वैश्विक आंकड़े बताते हैं कि किसानों की औसत आयु 55 वर्ष है, जो कई देशों में सेवानिवृत्ति की उम्र के बराबर है। खेती में नई पीढ़ी की भागीदारी कम हो रही है। सीमित कृषि भूमि और जलवायु परिवर्तन, इस पेशे को दोहरी चुनौती दे रहे हैं।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार 1991 में वैश्विक रोजगार में कृषि का हिस्सा 43% था, जो 2023 में घटकर 26% रह गया। अनुमान है कि औसतन हर दिन करीब 2,000 किसान खेती छोड़ रहे हैं। वर्ल्ड फार्मर्स ऑर्गनाइजेशन के अध्यक्ष अर्नोल्ड प्यूश पेस ड एलिसैक चेतावनी देते हैं कि यदि यही रुझान जारी रहा तो रोजगार और खाद्य आपूर्ति दोनों पर गंभीर असर पड़ेगा।

भारत में घटती कृषि भूमि

भारत में कृषि भूमि का दायरा पिछले 50 वर्षों में लगातार घटा है। कृषि मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 1970-71 में 18.2 करोड़ हेक्टेयर भूमि खेती के लिए उपयोग होती थी, जो 2020-21 में घटकर 14 करोड़ हेक्टेयर से कम रह गई।
खेतों का औसत आकार भी घटा है—1970-71 में 2.28 हेक्टेयर से 2018-19 में सिर्फ 1.08 हेक्टेयर तक। छोटे और सीमांत किसान (2 हेक्टेयर से कम भूमि वाले) अब कुल किसानों का 86% हैं, लेकिन उनके पास सिर्फ 47% कृषि भूमि है।
नीति आयोग की रिपोर्ट चेतावनी देती है कि 2030 तक प्रति व्यक्ति उपलब्ध कृषि भूमि 0.12 हेक्टेयर से भी कम रह जाएगी, जबकि 1960 में यह 0.34 हेक्टेयर थी।

पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी में सबसे तेज़ गिरावट

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSS) और कृषि मंत्रालय के आकलन बताते हैं कि महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खेती छोड़ने की दर सबसे अधिक है। इन इलाकों में तेज़ शहरी विस्तार, औद्योगिक परियोजनाएं और पानी की कमी किसानों को खेती से दूर कर रही है।
पूर्वी भारत के राज्यों—बिहार, झारखंड और ओडिशा—में यह दर अपेक्षाकृत कम है, लेकिन यहां भी युवाओं का कृषि से मोहभंग बढ़ रहा है। बड़ी संख्या में वे अन्य राज्यों में प्रवासी मजदूर के रूप में जा रहे हैं।

खतरे की तीन परतें—भूमि, जलवायु, श्रम

खेती की नींव भूमि है, जो औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और बुनियादी ढांचे के लिए इस्तेमाल हो रही है। जलवायु परिवर्तन फसल चक्र को अस्थिर कर रहा है, जिससे पैदावार पर दबाव बढ़ा है। साथ ही, खेती में श्रमिकों की कमी और युवाओं का रुझान कम होना, इस क्षेत्र को संकट की ओर धकेल रहा है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि इस स्थिति से निपटने के लिए जमीनी सुधार, सिंचाई अवसंरचना, फसल विविधीकरण, और कृषि में तकनीक का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल जरूरी है।
अन्यथा, बढ़ती आबादी के बीच घटती खाद्य आपूर्ति, आने वाले दशकों में खाद्य सुरक्षा को गंभीर खतरे में डाल सकती है।

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