मुंबई में आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में पूर्व मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर महत्वपूर्ण टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि पिछले 75 वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने लगातार ऐसे फैसले दिए हैं, जिनसे अभिव्यक्ति की आजादी को न केवल संरक्षित किया गया, बल्कि उसे मजबूत आधार भी प्रदान किया गया। पूर्व CJI के अनुसार, देश के लोकतांत्रिक ढांचे की मजबूती इसी स्वतंत्रता पर टिकी है, और न्यायपालिका ने हमेशा इसे सर्वोपरि माना है।
अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति किसी भी लोकतांत्रिक समाज की आत्मा होती है। भारत के संविधान ने नागरिकों को यह मौलिक अधिकार दिया है, और सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर इस अधिकार की रक्षा के लिए उल्लेखनीय हस्तक्षेप किए हैं। उन्होंने कुछ ऐतिहासिक फैसलों का उल्लेख करते हुए बताया कि न्यायालय ने हमेशा ऐसे सिद्धांत स्थापित किए हैं, जो न केवल सरकार की शक्ति को संतुलित करते हैं, बल्कि नागरिकों को निर्भीक होकर अपनी बात रखने की स्वतंत्रता भी देते हैं।
पूर्व CJI ने यह भी कहा कि डिजिटल युग में अभिव्यक्ति की आजादी के सामने नई चुनौतियाँ खड़ी हो रही हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म, फेक न्यूज और तकनीकी दुरुपयोग के कारण कई जटिल प्रश्न पैदा हो रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि इन चुनौतियों के समाधान के लिए न्यायपालिका और विधायिका दोनों को मिलकर काम करना होगा, ताकि स्वतंत्रता और जिम्मेदारी के बीच संतुलन बनाए रखा जा सके।
कार्यक्रम में उपस्थित विधि विशेषज्ञों, न्यायविदों और छात्रों ने पूर्व CJI के वक्तव्य को अत्यंत महत्वपूर्ण बताया। उनका कहना था कि यह बयान न केवल न्यायपालिका की भूमिका को रेखांकित करता है, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को भी सुदृढ़ करता है। कुल मिलाकर, यह वक्तव्य भारतीय लोकतंत्र के मूल्यों और सुप्रीम कोर्ट की ऐतिहासिक भूमिका की पुनर्स्मृति का संदेश देता है।





