देश में तेजी से फैल रहा निजी कोचिंग उद्योग अब परिवारों के लिए गंभीर आर्थिक चुनौती बनता जा रहा है। एक हालिया आकलन के अनुसार, कोचिंग सेंटरों का कारोबार लगभग 58,000 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है, जिसमें हर साल भारी वृद्धि देखी जा रही है। प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में सफलता की चाहत और बेहतर भविष्य की उम्मीद में लाखों परिवार अपने बच्चों को कोचिंग संस्थानों में भेजने को मजबूर हैं। लेकिन बढ़ती फीस, आवासीय खर्च, अध्ययन सामग्री और अतिरिक्त सेवाओं के नाम पर वसूले जा रहे शुल्क ने अभिभावकों की आर्थिक स्थिति पर गहरा दबाव डाला है।
यह मुद्दा हाल ही में संसद में भी उठा, जहां सरकार से पूछा गया कि क्या वह निजी कोचिंग संस्थानों के अनियमित शुल्क और बढ़ते बोझ पर किसी तरह की नीति लागू करने पर विचार कर रही है। जवाब में सरकार ने स्पष्ट किया कि फिलहाल निजी कोचिंग संस्थानों को नियंत्रित करने के लिए कोई अलग केंद्रीय कानून नहीं है। हालांकि, सरकार ने यह जरूर कहा कि राज्यों को अपने स्तर पर ऐसे संस्थानों के संचालन और फीस से संबंधित नियम बनाने का अधिकार है। केंद्र ने यह भी बताया कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति का उद्देश्य छात्रों पर अनावश्यक दबाव को कम करना है ताकि कोचिंग पर निर्भरता घटाई जा सके।
संसद में यह भी बताया गया कि सरकार विभिन्न परीक्षा प्रणालियों को सरल बनाने, डिजिटल लर्निंग को बढ़ावा देने और स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने पर काम कर रही है, ताकि छात्रों को कोचिंग लेने की अनिवार्यता महसूस न हो। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक प्रवेश परीक्षाओं का ढांचा अत्यधिक प्रतिस्पर्धी और सीमित सीटों वाला रहेगा, तब तक कोचिंग उद्योग फलता-फूलता रहेगा।
इधर, अभिभावक संगठनों ने सरकार से ठोस कदम उठाने की मांग की है। उनका कहना है कि कोचिंग संस्थान बिना किसी नियंत्रण के फीस बढ़ाते हैं और पारदर्शिता की भारी कमी है। बढ़ता खर्च मध्यमवर्गीय परिवारों के बजट को प्रभावित कर रहा है और कई बार माता-पिता पर कर्ज लेने की नौबत तक आ जाती है। ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि सरकार भविष्य में इस क्षेत्र को विनियमित करने के लिए कोई व्यापक ढांचा तैयार करे।





