उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में सदियों से मनाया जाने वाला हरेला पर्व न केवल एक पारंपरिक लोक उत्सव है, बल्कि यह प्रकृति और समाज के बीच आत्मिक जुड़ाव का एक प्रतीक भी है। श्रावण मास की संक्रांति, जिसे कर्क संक्रांति भी कहा जाता है, के दिन मनाया जाने वाला यह पर्व ऋतु उत्सवों में विशेष स्थान रखता है।
हरेला का शाब्दिक अर्थ है – “हरियाली”। यह पर्व उस उम्मीद का प्रतीक है जो मानसून की पहली फुहारों के साथ धरती से जुड़ती है। परंपरानुसार, पर्व से नौ-दस दिन पूर्व घरों में या गांव के देवस्थान में पत्तों से बने दोने या रिंगाल की टोकरियों में हरेला बोया जाता है। इन टोकरियों में मिश्रित रूप से पांच, सात या नौ प्रकार के धान्य – जैसे धान, मक्का, तिल, गहत, भट्ट, जौं, उरद, और सरसों के बीज बोए जाते हैं। प्रतिदिन जल का छिड़काव कर उन्हें सींचा जाता है और नौ-दस दिनों में ये अंकुरित होकर सात-आठ इंच लंबे हरे तृण का रूप ले लेते हैं।
हरेला पर्व की पूर्व संध्या पर इन हरे तृणों की गुड़ाई की जाती है और विधिपूर्वक पूजा होती है। कुछ क्षेत्रों में इस दिन मिट्टी से शिव-पार्वती, गणेश और कार्तिकेय की पारंपरिक मूर्तियां (डिकारे) बनाकर हरेला के साथ पूजन का आयोजन होता है।
पर्व के दिन टोकरियों में उगे हरेला को पूजा के बाद काटा जाता है और घर की महिलाएं इन्हें दोनों हाथों से लेकर परिवार के सदस्यों के सिर, कंधे और पांव से छुआते हुए आशीर्वाद देती हैं – “जी ले तू हरेला जस, फूलै-फलै तू बगैंचा जस।” यह परंपरा पारिवारिक स्नेह और सामूहिकता का जीवंत रूप है।
इस दिन विशेष रूप से पारंपरिक पहाड़ी पकवान बनते हैं और आपस में बांटे जाते हैं। हरेला का एक अनिवार्य पहलू है – वृक्षारोपण। लोक मान्यता है कि इस दिन पेड़ की एक टहनी रोपने से भी उसमें जीवन पनप जाता है। यह परंपरा पर्यावरण संरक्षण का एक सरल, लेकिन गहरा संदेश देती है।
हरेला केवल सांस्कृतिक उत्सव नहीं, बल्कि लोक विज्ञान और जैव विविधता से जुड़ा पर्व भी है। विभिन्न बीजों को एक साथ बोने की प्रक्रिया न केवल बारहनाजा यानी मिश्रित खेती की महत्ता को दर्शाती है, बल्कि बीजांकुरण परीक्षण के रूप में भी काम करती है – जिससे किसानों को आगामी फसल के बारे में पूर्व संकेत मिलते हैं।
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें तो हरेला सामाजिक समरसता का प्रतीक है। संयुक्त परिवारों में एक ही स्थान पर हरेला बोना और सामूहिक पूजन करना यह दर्शाता है कि लोक जीवन में परंपराएं केवल धार्मिक कृत्य नहीं, बल्कि सामाजिक एकजुटता का माध्यम भी हैं।
आज के समय में जब पूंजीवाद और उपभोक्तावाद के प्रभाव में प्रकृति से दूर होती जा रही जीवनशैली हमें लगातार चुनौती दे रही है, हरेला जैसे पर्वों की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि प्रकृति से हमारा संबंध सिर्फ संसाधनों के उपयोग तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि हमें उसे पोषित करने का भी उतना ही प्रयास करना चाहिए।
भारतीय संस्कृति में धरती को माता का दर्जा दिया गया है – “माता भूमिः पुत्रोऽहम् पृथिव्याः।” इस भाव को जीवन में उतारना आज पहले से कहीं अधिक आवश्यक हो गया है।
उत्तराखंड सरकार ने पिछले वर्षों से हरेला पर्व को राज्य स्तर पर मनाने की पहल की है। स्कूलों, संस्थानों और ग्राम सभाओं में वृक्षारोपण, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और पर्यावरण जागरूकता अभियानों के ज़रिये इसे नई पीढ़ी से जोड़ा जा रहा है।
अंततः, हरेला पर्व प्रकृति, परंपरा और भविष्य के बीच सेतु का काम करता है। यह पर्व हमें न केवल हरियाली के प्रति प्रेम सिखाता है, बल्कि यह भी सिखाता है कि जब प्रकृति मुस्कुराती है, तभी जीवन प्रफुल्लित होता है।