प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में वंदे मातरम को लेकर छिड़ी बहस के माध्यम से पश्चिम बंगाल की राजनीति में एक बार फिर अपनी पकड़ मजबूत करने की रणनीति दिखाई है। विशेषज्ञों का मानना है कि सांस्कृतिक प्रतीकों पर केंद्रित राजनीतिक विमर्श न केवल भावनात्मक जुड़ाव पैदा करता है, बल्कि क्षेत्रीय राजनीतिक गणित को भी प्रभावित करता है। इसी सूत्र पर चलते हुए प्रधानमंत्री ने वंदे मातरम को एक सांस्कृतिक गौरव के मुद्दे के रूप में पेश किया, जिसने राज्य में राजनीतिक सक्रियता को नया आयाम दिया है।
पिछले कुछ वर्षों में भाजपा ने बंगाल में अपने जनाधार को बढ़ाने के लिए लगातार सांस्कृतिक और ऐतिहासिक मुद्दों को केंद्र में रखा है। ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा वंदे मातरम पर जोर देना उस रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है, जिसके माध्यम से पार्टी बंगाल की सांस्कृतिक पहचान के साथ खुद को जोड़कर क्षेत्र में अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करना चाहती है। राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि यह कदम टीएमसी सरकार पर अप्रत्यक्ष दबाव भी बनाता है, क्योंकि सांस्कृतिक प्रतीकों पर किसी भी प्रकार की विरोधी प्रतिक्रिया टीएमसी को रक्षात्मक स्थिति में ला सकती है।
प्रधानमंत्री मोदी के बयान के बाद भाजपा की राज्य इकाई ने भी पूरे उत्साह के साथ इस मुद्दे को जनता के बीच ले जाने की कोशिश की है। पार्टी नेताओं का कहना है कि बंगाल की संस्कृति देश की आज़ादी के इतिहास से गहराई से जुड़ी रही है और वंदे मातरम पर उनकी बात राज्य के गौरव और आत्मसम्मान से सीधे जुड़ती है। इससे भाजपा को ग्रामीण और शहरी दोनों वर्गों में राजनीतिक संवाद का एक नया आधार मिला है।
वहीं, राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और टीएमसी के लिए यह मुद्दा चुनौतीपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि सांस्कृतिक विषयों पर उनका संतुलन बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। किसी भी बयान या कदम का गलत अर्थ निकाला जा सकता है, जिसका राजनीतिक लाभ भाजपा को मिल सकता है। यही कारण है कि भाजपा इस बहस को एक बड़े राजनीतिक नैरेटिव में बदलने की कोशिश कर रही है।
कुल मिलाकर, वंदे मातरम पर चर्चा न केवल सांस्कृतिक विमर्श का मुद्दा बनी, बल्कि यह बंगाल की राजनीतिक जमीन पर भाजपा की रणनीतिक चाल भी साबित हुई। आगामी चुनावों को देखते हुए इस मुद्दे का असर राजनीतिक समीकरणों पर कितना पड़ेगा, यह आने वाले समय में स्पष्ट होगा।





