नई दिल्ली। देश के राज्यों पर वेतन, पेंशन और ब्याज भुगतान का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। बीते दस वर्षों में यह खर्च ढाई गुना से ज्यादा बढ़कर 15.63 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि आय के स्रोतों की तुलना में व्यय की यह तेज़ वृद्धि राज्यों की वित्तीय स्थिति पर गंभीर असर डाल सकती है।
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2014-15 में राज्यों का वेतन, पेंशन और ब्याज भुगतान का कुल खर्च करीब 6 लाख करोड़ रुपये था। वित्तीय वर्ष 2024-25 में यह बढ़कर 15.63 लाख करोड़ रुपये हो गया। यानी दस साल में इसमें 9.63 लाख करोड़ रुपये से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई है। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा वेतन और पेंशन भुगतान का है, जबकि ब्याज भुगतान का भार भी हर साल तेजी से बढ़ रहा है।
अर्थशास्त्रियों का मानना है कि राजस्व वृद्धि की धीमी रफ्तार और कल्याणकारी योजनाओं पर बढ़ते व्यय के बीच यह खर्च राज्यों की दीर्घकालिक वित्तीय स्थिरता के लिए चुनौतीपूर्ण है। पेंशन पर बढ़ते व्यय को देखते हुए कई राज्यों में नई पेंशन स्कीम (एनपीएस) बनाम पुरानी पेंशन व्यवस्था (ओपीएस) को लेकर बहस भी तेज है। ओपीएस लागू करने की मांग को राजनीतिक दल चुनावी वादों में शामिल कर रहे हैं, जिससे राज्यों का बोझ और बढ़ सकता है।
वित्त विशेषज्ञों का कहना है कि यदि राज्यों ने पूंजीगत व्यय और राजस्व व्यय में संतुलन नहीं साधा, तो विकास योजनाओं पर असर पड़ सकता है। साथ ही ब्याज भुगतान का बोझ बढ़ने से कर्ज की स्थिति और गंभीर हो सकती है।
नीति आयोग और वित्त आयोग पहले भी चेतावनी दे चुके हैं कि राज्यों को राजस्व के नए स्रोत तलाशने होंगे और वित्तीय अनुशासन बनाए रखना होगा, अन्यथा दीर्घकालिक रूप से उनके विकास मॉडल पर प्रश्नचिह्न लग सकते हैं।





