Tuesday, July 1, 2025

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बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी की वापसी

बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह देश में प्रतिबंधित किए गए राजनीतिक दल- जमात-ए-इस्लामी (जेईआई) को दोबारा मान्यता दे। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला जमात-ए-इस्लामी की 10 साल से ज्यादा तक चली न्यायिक लड़ाई के बाद आया है। अब जमात-ए-इस्लामी फिर बांग्लादेश में मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल की तरह चुनाव लड़ सकेगी।
1971 के बांग्लादेश स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जिस जमात-ए-इस्लामी ने पाकिस्तान का समर्थन करते हुए अलग देश की मांग को नकार दिया था, शेख हसीना के शासन में उसकी सक्रिय राजनीति में वापसी काफी मुश्किल मानी जा रही थी। हालांकि, अगस्त 2024 में हसीना के पीएम पद से अपदस्थ होने और मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में अंतरिम सरकार के गठन के बाद से ही जेईआई की सक्रियता बढ़ गई।
ऐसे में यह जानना अहम है कि आखिर जमात-ए-इस्लामी क्या है? 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में जमात-ए-इस्लामी की क्या भूमिका थी? शेख हसीना के शासन में इसकी मुश्किलें कैसे बढ़ गईं? अब इस पार्टी की मुख्यधारा में वापसी कैसे हुई? बांग्लादेश और भारत के लिए इसके क्या मायने हैं?
• जमात-ए-इस्लामी का इस्लामिक मूल्यों पर संगठित भारत बनाने का सपना तब चूर हो गया, जब ब्रिटिश साम्राज्य ने इसे दो हिस्सों में विभाजित किया। जहां मुस्लिमों ने पाकिस्तान चुना, वहीं हिंदुओं ने भारत में रहने को तरजीह दी।
• ऐसे में जमात-ए-इस्लामी ने अपने दायरे को भारत से बाहर बढ़ाते हुए पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) तक फैलाया। चूंकि पाकिस्तान का गठन धार्मिक आधार पर हुआ था, इसलिए जमात-ए-इस्लामी को बांग्लादेश में पैर फैलाने में आसानी हुई।

पूर्वी पाकिस्तान में जब बांग्ला संस्कृति और भाषा को लेकर पश्चिमी पाकिस्तान से मतभेद शुरू हुआ तो हजारों की संख्या में लोगों ने प्रदर्शन शुरू किए। इस दौरान पश्चिमी पाकिस्तान के सैन्य शासन ने बांग्लादेश में जबरदस्त जुल्म किए। हालांकि, शेख मुजीब-उर-रहमान के नेतृत्व में पूर्वी पाकिस्तान ने भारत की मदद से पश्चिमी पाकिस्तान से आजादी की जंग शुरू कर दी। जमात-ए-इस्लामी ने इस जंग के दौरान पश्चिमी पाकिस्तान के खिलाफ आवाज उठाने वाले बांग्ला लोगों पर जुल्म में पाकिस्तानी सेना का साथ दिया। पश्चिमी पाकिस्तान ने इस दौरान जमात-ए-इस्लामी के कार्यकर्ताओं के साथ एक शांति वाहिनी का गठन किया, जो कि अलग बांग्लादेश की मांग करने वालों को कुचलने के लिए बनाई गई थी।

इस दौरान हजारों लोगों की हत्या की गई, सैकड़ों महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया गया। पाकिस्तानी सेना और जेईआई कार्यकर्ताओं ने जिनकी जान ली, उनमें बच्चे, विद्वान, डॉक्टर, वैज्ञानिक आदि शामिल थे। हजारों महिलाओं को सैन्य कैंपों में बंधक बनाकर रखा गया। उन्हें पाकिस्तानी सेना के सामने मनोरंजन के लिए पेश किया गया।

1971 की जंग के बाद बांग्लादेश आजाद हुआ, तो जमात-ए-इस्लामी के कई कार्यकर्ता जान बचाने के लिए पश्चिमी पाकिस्तान भाग गए। कई बांग्लादेश में छिपे रहे। इस दौरान बांग्लादेश के पहले प्रधानमंत्री शेख मुजीब ने धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रवाद, समाजवाद और लोकतंत्र को संविधान के चार सिद्धांतों के तौर पर स्थापित किया। साथ ही ऐसे राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगा दिया, जो कि धार्मिक आधार पर बने थे। ऐसे में जमात-ए-इस्लामी का राजनीतिक पार्टी के तौर पर सफर ठहर गया।

हालांकि, 1975 में शेख मुजीब की हत्या और 1977 में मेजर जनरल जिया-उर-रहमान के सत्ता में आने के बाद जमात-ए-इस्लामी की राजनीति में वापसी तय हो गई। जिया-उर-रहमान की हत्या के बाद उनकी पत्नी खालिदा जिया ने भी जेईआई का समर्थन जारी रखा। दोनों दलों ने इस दौरान गठबंधन बनाया और सरकार में जमात के कई चेहरों को पद मिले।
जमात-ए-इस्लामी के फिर से प्रतिबंधित होने का रास्ता शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना के सत्ता में आने के बाद खुला। शेख हसीना ने 2008 के अपने चुनावी अभियान में इसे एजेंडा बना लिया और वादा किया कि चुनाव जीतने के बाद वे 1971 की जंग के युद्ध अपराधियों को सजा दिलाएंगी। बांग्लादेश के स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारों ने इस वादे पर शेख हसीना का जमकर समर्थन किया।

बांग्लादेश में बीते साल जब आरक्षण के मुद्दे पर अदालत के एक फैसले के खिलाफ छात्रों के प्रदर्शन शुरू हुए तो इसमें जमात-ए-इस्लामी के छात्र संगठन- इस्लामी छात्र शिविर ने भी बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। आरोप है कि इस छात्र संगठन ने आंदोलन के दौरान कोर्ट के फैसले के लिए शेख हसीना को जिम्मेदार ठहराया और हिंसा भड़काई।

आखिरकार अगस्त 2024 में जब शेख हसीना को पद छोड़कर बांग्लादेश से भारत आना पड़ा, तब इस्लामी छात्र शिविर का प्रभाव देश में और बढ़ गया। जमात-ए-इस्लामी के इस छात्र संगठन ने शेख हसीना के खिलाफ आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी, जिसकी वजह से बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद यूनुस भी जेईआई पर प्रतिबंध को भुलाने और फिर इसे खुलकर छूट देने के लिए मजबूर माने जा रहे हैं।

1. जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान का समर्थन करता रहा है। पाकिस्तान की सेना और सरकार भी उसके समर्थन में आवाज उठाती रही है। सुरक्षा विश्लेषकों ने समय-समय पर जमात-ए-इस्लामी के पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी- आईएसआई से संपर्क होने की आशंका भी जताई है। ऐसे में जेईआई का बांग्लादेश की सक्रिय राजनीति में लौटने का घटनाक्रम भारत के लिए भी सुरक्षा के लिहाज से काफी अहम है।

दरअसल, जब खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के साथ जमात-ए-इस्लामी गठबंधन का हिस्सा थी, तब भारत के पूर्वोत्तर में मौजूद चरमपंथियों को अपने अभियानों के लिए बांग्लादेश की जमीन का इस्तेमाल करने का मौका मिलने लगा था। हालांकि, शेख हसीना के प्रधानमंत्री बनने के बाद जमात-ए-इस्लामी की तरफ से दिए जाने वाले इस तरह के नेटवर्क को खत्म कर दिया गया और भारत ने धीरे-धीरे पूर्वोत्तर में स्थितियों पर काबू पा लिया।
2. जमात-ए-इस्लामी का सक्रिय राजनीति में आना इसलिए भी चिंता का विषय है, क्योंकि मोहम्मद यूनुस की सरकार पहले ही पाकिस्तान के साथ रिश्तों को बेहतर करने में रुचि दिखा चुकी है। ऐसे में जमात-ए-इस्लामी के जरिए पाकिस्तान अब बांग्लादेश के नीतिगत फैसलों में भी प्रभाव दिखा सकता है। विश्लेषकों का मानना है कि इससे आने वाले दिनों में भारत-बांग्लादेश के सहयोग पर असर पड़ेगा।

3. जेईआई के प्रतिनिधिमंडल ने कुछ समय पहले ही ढाका में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से मुलाकात की थी। रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस दौरान जमात-ए-इस्लामी ने रोहिंग्याओं के लिए एक अलग स्वतंत्र राज्य बनाने का प्रस्ताव दिया था। अगर बांग्लादेश और चीन ऐसे किसी कदम के साथ म्यांमार में आगे बढ़ते हैं तो इससे भारत की एक और सीमा पर स्थितियां तनावपूर्ण हो सकती हैं। इतना ही नहीं भारत और म्यांमार के बीच चल रही कई परियोजनाएं भी प्रभावित हो सकती हैं।
नीदरलैंड के धुर दक्षिणपंथी नेता गीर्ट विल्डर्स ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया है, जिसके बाद नीदरलैंड की गठबंधन सरकार पर संकट के बादल मंडरा गए हैं और सरकार अल्पमत में आ गई है। विल्डर्स ने सोशल मीडिया मंच एक्स पर साझा एक पोस्ट में सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा की। गठबंधन सरकार में चार पार्टियां शामिल थीं, अब सिर्फ तीन रह गई हैं। दरअसल बीते हफ्ते विल्डर्स ने सरकार से मांग की थी कि अप्रवासन को तेजी से कम करने के लिए 10 बिंदू योजना पर हस्ताक्षर करे।

इस योजना में विल्डर्स ने देश की सीमाओं की रक्षा और अवैध अप्रवासन को रोकने के लिए सेना की तैनाती की भी मांग की है। उनका कहना है कि अगर अप्रवासन नीति को सख्त नहीं किया गया तो उनकी पार्टी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेगी। नीदरलैंड सरकार पर संकट के बादल ऐसे वक्त मंडरा रहे हैं, जब नीदरलैंड तीन हफ्ते बाद ही हेग में नाटो नेताओं की अहम बैठक होनी है। सोमवार को रात को गठबंधन के नेताओं की बैठक हुई, जिसमें गीर्ट विल्डर्स भी शामिल हुए। बैठक के बाद विल्डर्स ने कहा था कि ‘कल फिर से बैठक होगी, लेकिन हालात ठीक नहीं लग रहे हैं।’ विल्डर्स के बयान से साफ है कि सहमति नहीं बन पाई और आखिरकार विल्डर्स ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

गीर्ट विल्डर्स एक धुर दक्षिणपंथी नेता हैं, जो नीदरलैंड में इस्लाम और अप्रवासन नीति के बड़े विरोधी हैं। विल्डर्स लंबे समय तक विपक्ष में रहे हैं, लेकिन नवंबर 2023 में हुए चुनाव में उनकी पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें मिलीं थी और सत्ताधारी गठबंधन में उनकी पार्टी सबसे बड़ी थी। विल्डर्स ने कहा था कि कई महीने की बातचीत के बाद अब उनका सब्र जवाब दे गया। इससे पहले फरवरी में भी विल्डर्स ने गठबंधन से नाता तोड़ने की धमकी दी थी क्योंकि शरणार्थियों की संख्या सीमित करने की उनकी मांग पूरी नहीं हो रही थी। हालांकि बाद में विल्डर्स मान गए थे।

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