Thursday, October 30, 2025

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क्या मुसलमानों का भरोसा दोबारा जीत पाएंगी मायावती? राहुल गांधी और अखिलेश यादव के वोट बैंक पर मंडराया खतरा

लखनऊ। उत्तर प्रदेश की सियासत में एक बार फिर मुसलमान मतदाताओं का रुख चर्चा में है। विधानसभा और लोकसभा चुनावों से पहले बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की मुखिया मायावती ने अल्पसंख्यक समुदाय को साधने के संकेत दिए हैं। सवाल यह है कि क्या मायावती एक बार फिर मुसलमानों का भरोसा जीत पाएंगी — और अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के समीकरणों पर इसका कितना असर पड़ेगा?

बीते कुछ महीनों से मायावती ने अपने राजनीतिक तेवरों में बदलाव दिखाया है। उन्होंने न केवल मुस्लिम समाज से जुड़े मुद्दों को मुखरता से उठाया है, बल्कि कई मुस्लिम नेताओं को भी पार्टी में अहम जिम्मेदारियां सौंपी हैं। हाल ही में बसपा के संगठन में किए गए फेरबदल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल जैसे इलाकों में मुस्लिम नेतृत्व को मजबूत करने की रणनीति साफ झलक रही है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मायावती का यह कदम सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। सपा और कांग्रेस के बीच सीटों के बंटवारे के बावजूद मुस्लिम मतदाताओं में असंतोष की झलक कई जगह दिख रही है। ऐसे में मायावती चाहती हैं कि 2012 से पहले की तरह मुस्लिम-दलित समीकरण को फिर से जिंदा किया जाए — जो कभी बसपा की सत्ता की सबसे मजबूत नींव था।

मुस्लिम वोट बैंक उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से करीब 125 सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है। 2019 और 2024 के चुनावों में इस वर्ग का बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन के साथ गया, लेकिन अब मायावती का नया रुख इस पर असर डाल सकता है।

बसपा ने हाल ही में भाजपा और सपा दोनों पर निशाना साधते हुए कहा कि “मुसलमानों को केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि उनके मुद्दों पर कोई ठोस पहल नहीं की जा रही।” मायावती ने यह भी कहा कि बसपा ही वह एकमात्र पार्टी है जो दलितों और मुसलमानों दोनों के अधिकारों की असली आवाज उठाती है।

कांग्रेस और सपा इस स्थिति पर नजर बनाए हुए हैं। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने हाल ही में अपने एक बयान में कहा कि “मुस्लिम समाज हमारे साथ है और रहेगा, क्योंकि हमने हमेशा उनके हितों की रक्षा की है।” वहीं कांग्रेस नेताओं का कहना है कि “मायावती की सियासत अब केवल बयानबाज़ी तक सीमित रह गई है, जबकि कांग्रेस ने जमीन पर काम किया है।”

राजनीतिक पंडितों का मानना है कि अगर मायावती अपने मुस्लिम वोट बैंक में 5 से 7 प्रतिशत की भी सेंध लगाने में सफल रहती हैं, तो इसका सीधा असर सपा और कांग्रेस के गठबंधन पर पड़ेगा, खासकर पश्चिमी यूपी, सहारनपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़ और आजमगढ़ जैसे क्षेत्रों में।

फिलहाल, बसपा ने अभी तक किसी औपचारिक गठबंधन का संकेत नहीं दिया है, लेकिन मायावती का हालिया अभियान यह इशारा देता है कि वह चुनावी मैदान में तीसरा विकल्प बनने की तैयारी में हैं — जिसमें दलित-मुस्लिम एकता को फिर से बसपा की राजनीतिक रीढ़ बनाया जा सके।

अब देखना यह होगा कि क्या मायावती अपनी इस रणनीति से मुसलमानों का खोया भरोसा फिर से हासिल कर पाती हैं, या यह कोशिश कांग्रेस और सपा के मजबूत गठबंधन के आगे फीकी पड़ जाएगी। उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए यह समीकरण आने वाले महीनों में बेहद निर्णायक साबित हो सकता है।

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