नैनीताल। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने ड्रिंक-ड्राइविंग मामलों को लेकर एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है। अदालत ने कहा कि सिर्फ शराब की गंध आने के आधार पर किसी वाहन चालक को नशे में मानना और उसके खिलाफ कार्रवाई करना कानूनन गलत है, जब तक कि इसके समर्थन में वैज्ञानिक और चिकित्सीय सबूत न हों।
यह फैसला उस याचिका पर आया, जिसमें एक वाहन चालक ने पुलिस कार्रवाई को चुनौती दी थी। पुलिस ने चालक को गाड़ी रोकने पर शराब की गंध आने के आधार पर नशे की हालत में गाड़ी चलाने का दोषी ठहरा दिया था। हालांकि मेडिकल टेस्ट में चालक का अल्कोहल स्तर कानूनी सीमा से कम पाया गया।
हाईकोर्ट ने कहा कि “गंध मात्र एक अनुमान है, प्रमाण नहीं।” अदालत ने टिप्पणी की कि किसी व्यक्ति के मुंह, कपड़ों या वाहन से शराब की गंध आना यह साबित नहीं करता कि वह नशे में था। कानूनन कार्रवाई तभी मान्य होगी जब ब्रेथएनालाइज़र, ब्लड टेस्ट या किसी अन्य मान्यता प्राप्त वैज्ञानिक जांच से स्पष्ट हो कि चालक नशे की हालत में था।
न्यायालय ने पुलिस और ट्रैफिक विभाग को निर्देश दिए कि वे ड्रिंक-ड्राइविंग के मामलों में केवल वैज्ञानिक जांच और वैध मेडिकल रिपोर्ट को ही सबूत मानें। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि पुलिस के पास प्रारंभिक जांच का अधिकार तो है, लेकिन दोष सिद्ध करने के लिए ठोस वैज्ञानिक आधार जरूरी है।
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि इस फैसले से ट्रैफिक पुलिसिंग की प्रक्रिया में पारदर्शिता आएगी और नागरिक अधिकारों की भी रक्षा होगी। वहीं सड़क सुरक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि अदालत के निर्देशों के बाद अब पुलिस को आधुनिक उपकरणों और प्रशिक्षण से लैस करना जरूरी होगा, ताकि सड़क सुरक्षा और न्याय दोनों सुनिश्चित हो सकें।
यह निर्णय राज्य में उन कई मामलों को प्रभावित कर सकता है, जहां केवल गंध के आधार पर चालकों के खिलाफ कार्रवाई की गई थी।