ग्लेशियर मलबे और अनियोजित बसावट ने बढ़ाया आपदा का खतरा, वैज्ञानिकों की चेतावनी अनसुनी
उत्तराखंड का सीमांत जनपद उत्तरकाशी प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज़ से बेहद संवेदनशील रहा है। भूकंप, भूस्खलन, अतिवृष्टि और बादल फटने जैसी घटनाएं यहाँ बार-बार सामने आती रही हैं। इतिहास गवाह है कि वर्ष 1750 में इस क्षेत्र में आई एक आपदा में तीन गांव भागीरथी नदी में समा गए थे।
1750 की त्रासदी: जब टूटी पहाड़ी से बनी झील
गढ़वाल विश्वविद्यालय के भू-विज्ञान विभागाध्यक्ष प्रो. महेंद्र प्रताप सिंह बिष्ट के अनुसार, वर्ष 1750 में हर्षिल क्षेत्र के झाला के समीप अवांड़ा का डांडा नामक पहाड़ी का एक विशाल हिस्सा लगभग 1900 से 2000 मीटर की ऊँचाई से टूटकर सुक्की गांव के नीचे भागीरथी में आ गिरा था। इसके परिणामस्वरूप नदी का प्रवाह अवरुद्ध हो गया और झाला से जांगला तक लगभग 14 किलोमीटर लंबी झील बन गई, जिसमें तीन गांव डूब गए।
सेना का कैंप भी खतरे की जद में
प्रो. बिष्ट ने बताया कि वर्तमान में हर्षिल का सेना कैंप और धराली क्षेत्र पुराने ग्लेशियर एवलांच शूट के मुहाने पर बसे हुए हैं। यद्यपि ग्लेशियर अब समाप्त हो चुके हैं, लेकिन उनके अवशेष और मलबा अब भी पहाड़ी ढलानों पर मौजूद हैं, जो भारी बारिश के दौरान आपदा को आमंत्रित करते हैं।
उनका कहना है कि 1750 से लेकर अब तक इस क्षेत्र में समय-समय पर आपदाएं आती रही हैं, लेकिन आज भी असुरक्षित क्षेत्रों में बसावट जारी है। सरकार को चाहिए कि वह ऐसे संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान कर सख्त कार्रवाई करे।
केदारताल: एक बढ़ती हुई झील, जिसका समय रहते निरीक्षण जरूरी
प्रो. बिष्ट ने विशेष रूप से गंगोत्री क्षेत्र में स्थित केदारताल की ओर भी ध्यान दिलाया है। यह ग्लेशियर जनित झील धीरे-धीरे आकार में बढ़ रही है और भविष्य में खतरा बन सकती है। उन्होंने बताया कि वह 2019 से इस झील की उपग्रह से निगरानी कर रहे हैं और इसकी मॉनिटरिंग जारी रहनी चाहिए।
पूर्व में उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (यू-सर्क) के निदेशक रह चुके प्रो. बिष्ट का कहना है कि गंगोत्री क्षेत्र की स्थिरता के लिए यह निगरानी अत्यंत आवश्यक है।
बदलते मौसम पैटर्न की चेतावनी: बारिश घट रही, बादल फटना बढ़ रहा
वरिष्ठ भू वैज्ञानिक डॉ. यशपाल सुंद्रियाल ने एक और महत्वपूर्ण तथ्य सामने रखा है। उन्होंने बताया कि बीरबल साहनी पुरा विज्ञान संस्थान, लखनऊ द्वारा जारी 500 वर्षों के अध्ययन में स्पष्ट किया गया है कि उत्तराखंड में सामान्य बारिश की मात्रा घटी है, लेकिन बादल फटने और अतिवृष्टि की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। इसका सीधा कारण है ग्लोबल वार्मिंग।
उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि 1978 में डबरानी के पास कनोडिया गाड़ में बनी झील के टूटने से भागीरथी का जलस्तर बढ़ा और जोशियाड़ा क्षेत्र भारी नुकसान की चपेट में आ गया। सौभाग्य से लोगों को समय रहते सूचना मिल गई थी, जिससे जान का नुकसान नहीं हुआ।
सरकारी उदासीनता पर उठे सवाल
डॉ. सुंद्रियाल ने चिंता जताई कि 1998 से अब तक गढ़वाल क्षेत्र में कई बड़ी आपदाएं हो चुकी हैं, लेकिन सरकार अब भी गंभीर नहीं दिखती। नदियों के फ्लड प्लेन पर होटल और रिज़ॉर्ट धड़ल्ले से बनाए जा रहे हैं। वैज्ञानिकों द्वारा बार-बार चेतावनी देने के बावजूद प्रभावी रोकथाम के उपाय नहीं किए गए हैं।
निष्कर्ष: इतिहास दोहराने से रोकने की ज़िम्मेदारी आज की है
1750 की घटना आज भी उत्तरकाशी को याद दिलाती है कि प्रकृति के सामने मनुष्य कितना असहाय हो सकता है। लेकिन आधुनिक तकनीक, वैज्ञानिक चेतावनियों और नीति-निर्धारण के बीच आज मानव के पास विकल्प मौजूद हैं। अब यह राज्य और प्रशासन पर है कि वे चेतावनियों को गंभीरता से लें और पहाड़ों की सीमित धारण क्षमता को ध्यान में रखते हुए भविष्य की दिशा तय करें।