मुंबई: महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले कुछ दिनों से इस बात की भारी चर्चा थी कि दोनों ठाकरे भाई (उद्धव और राज ठाकरे) अपनी साझा विरासत को बचाने के लिए एक साथ आ सकते हैं। हालांकि, ताजा घटनाक्रम बताते हैं कि इस संभावित गठबंधन का आधिकारिक ऐलान आखिरी वक्त पर टल गया है। जानकारों का मानना है कि दोनों गुटों के बीच सीटों के बंटवारे और नेतृत्व की शर्तों को लेकर अभी भी पेच फंसा हुआ है।
क्यों टला गठबंधन का ऐलान?
- अंतिम समय की असहमति: राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन को लेकर प्राथमिक बातचीत पूरी हो चुकी थी, लेकिन ‘अंतिम ड्राफ्ट’ पर हस्ताक्षर होने से पहले कुछ वरिष्ठ नेताओं की आपत्तियों के कारण इसे टाल दिया गया।
- नेतृत्व और वर्चस्व का सवाल: गठबंधन की राह में सबसे बड़ी बाधा यह है कि एक छत के नीचे आने के बाद पार्टी का चेहरा कौन होगा? राज ठाकरे की फायरब्रांड छवि और उद्धव ठाकरे के पास मौजूद सहानुभूति कार्ड के बीच संतुलन बिठाना मुश्किल साबित हो रहा है।
- वैचारिक मतभेद: हालांकि दोनों पार्टियां हिंदुत्व और ‘मराठी मानुष’ की बात करती हैं, लेकिन उनके काम करने के तरीके और चुनावी रणनीतियों में काफी अंतर है।
‘ठाकरे ब्रांड’ बचाने की चुनौती कितनी बड़ी?
बालासाहेब ठाकरे की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए इस समय दोनों भाइयों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा है।
- वर्चस्व की लड़ाई: एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजीत पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के उदय के बाद, ‘असली शिवसेना’ का दावा कमजोर पड़ा है। ऐसे में ‘ठाकरे’ उपनाम के वोट बैंक को एकजुट रखना एक बड़ी चुनौती है।
- युवा पीढ़ी का भविष्य: आदित्य ठाकरे और अमित ठाकरे के राजनीतिक भविष्य के लिए भी यह गठबंधन महत्वपूर्ण माना जा रहा है। अगर ठाकरे परिवार एकजुट नहीं होता है, तो भविष्य में वोट बैंक का और अधिक बंटवारा तय है।
- सिंबल और पहचान का संकट: चुनाव आयोग के फैसलों के बाद मशाल (Ubt) और रेल इंजन (Mns) जैसे प्रतीकों के बीच मतदाताओं को भ्रम से बाहर निकालना भी एक बड़ी चुनौती है।
क्या सब कुछ ठीक है?
राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि “सब कुछ ठीक है” कहना अभी जल्दबाजी होगी।
- बीजेपी का फैक्टर: राज ठाकरे की बीजेपी से बढ़ती नजदीकियों ने भी उद्धव गुट के साथ बातचीत में पेच फंसाया है। उद्धव ठाकरे इस समय महाविकास अघाड़ी (MVA) का हिस्सा हैं, जबकि राज ठाकरे एनडीए के प्रति सॉफ्ट रहे हैं।
- कार्यकर्ताओं का दबाव: दोनों पार्टियों के जमीनी कार्यकर्ताओं में एक होने की चाहत तो है, लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर एक-दूसरे के खिलाफ दशकों तक लड़ने के बाद तालमेल बिठाना आसान नहीं है।
आगे की राह
फिलहाल के लिए यह गठबंधन ठंडे बस्ते में जाता दिख रहा है, लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति पल-पल बदलने वाली मानी जाती है। यदि आने वाले निकाय चुनावों या लोकसभा चुनावों में ‘ठाकरे ब्रांड’ को खतरा महसूस हुआ, तो अंतिम समय में फिर से कोई नया समीकरण बन सकता है।





