देश के पूर्व चीफ जस्टिस ने हाल ही में न्यायपालिका की भूमिका और मौजूदा परिदृश्य में न्यायिक सक्रियता को लेकर कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं। उन्होंने कहा कि न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) को लेकर समाज में दहशत या भय का माहौल बनना उचित नहीं है। न्यायपालिका का उद्देश्य हमेशा नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना और शासन प्रणाली में संतुलन बनाए रखना है।
पूर्व चीफ जस्टिस ने अपने संबोधन में स्पष्ट किया कि अदालतों द्वारा दिए गए सक्रिय और दूरगामी फैसलों को किसी डर या दबाव की तरह देखना सही व्याख्या नहीं है। उनके अनुसार, न्यायपालिका तब हस्तक्षेप करती है जब सार्वजनिक हित, संविधानिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों की रक्षा आवश्यक हो जाती है। उन्होंने कहा कि न्यायालय का काम सत्ता पर निगरानी रखना है, न कि टकराव पैदा करना।
बुलडोजर कार्रवाई के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि किसी भी प्रशासनिक कदम को कानून के दायरे में रहकर ही लागू किया जाना चाहिए। अदालतें वही निर्देश देती हैं जो विधि-सम्मत हों, और यदि किसी कार्रवाई में कानून का उल्लंघन पाया जाता है, तो उसे रोकना न्यायपालिका की जिम्मेदारी है। उन्होंने दोहराया कि न्यायालय कभी भी किसी राजनीतिक एजेंडे के आधार पर हस्तक्षेप नहीं करता, बल्कि तथ्यों, साक्ष्यों और कानूनी ढांचे पर ही निर्णय लिया जाता है।
राजनीतिक दबाव और न्यायपालिका पर प्रभाव डालने की कोशिशों से जुड़े प्रश्न पर उन्होंने सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि भारतीय न्यायपालिका स्वतंत्र है और किसी भी प्रकार का राजनीतिक दबाव उस पर प्रभाव नहीं डाल सकता। उन्होंने बताया कि न्यायाधीश संविधान और अपनी शपथ के प्रति जवाबदेह होते हैं, किसी भी राजनीतिक दल या सरकार के प्रति नहीं।
उन्होंने यह भी कहा कि समाज में न्यायपालिका को लेकर विश्वास बनाए रखना जरूरी है, और इसके लिए अदालतों के कार्य और फैसलों को निष्पक्षता की दृष्टि से समझना होगा। उन्होंने जनता से अपील की कि न्यायालयों की सक्रियता को लोकतंत्र की मजबूती के रूप में देखा जाए, न कि भय पैदा करने वाले कदम के रूप में।





