देहरादून परिसीमन को लेकर दक्षिण भारत के पांच राज्यों के मुख्यमंत्रियों की गोलबंदी के बाद उत्तराखंड में भी इस मुद्दे पर सुगबुगाहट है। हालांकि अभी परिसीमन आयोग का गठन नहीं हुआ है और पहले जनगणना होनी है। इसलिए इसमें अभी काफी वक्त है। लेकिन दक्षिण भारत से इतर हिमालयी राज्य उत्तराखंड की अपनी चिंताएं हैं। पहाड़ी राज्य की अवधारणा पर बने उत्तराखंड के नौ पर्वतीय जिलों से आबादी जिस तेजी से खिसक रही है उतनी ही तेजी से राज्य के चार मैदानी जिलों में आबादी बढ़ रही है। चुनाव आयोग की मतदाता सूचियां इन तथ्यों की तस्दीक करती हैं। पहाड़ की तुलना में मैदानी जिलों में मतदाताओं की संख्या बहुत अधिक तेजी से बढ़ी है।
यही पर्वतीय राज्य के सरोकारों से जुड़े राजनीतिज्ञों की चिंता की प्रमुख वजह है। 2018 में पलायन आयोग ने रिपोर्ट दी थी कि उत्तराखंड से पांच लाख से अधिक लोगों ने पलायन किया। इनमें तीन लाख से अधिक लोग काम की तलाश या बुनियादी सुविधाओं के अभाव में अस्थायी रूप से घर-बार छोड़ गए। तब से प्रदेश सरकार पलायन रोकने और रिवर्स पलायन के लिए उपाय कर रही है। गढ़वाल सांसद अनिल बलूनी मेरा वोट-मेरा गांव अभियान के जरिये अस्थायी रूप से पलायन कर चुके लोगों को अपने गांवों में वोट बनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। बकौल बलूनी, उनके गांव में अभियान प्रभावी रहा है। मगर जानकारों के हिसाब से ये सारे उपाय उतने प्रभावी नहीं हैं कि पहाड़ और मैदान के बीच जनसंख्या के अंतर को पाट सकें।
चारधाम ऑलवेदर रोड, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना, हवाई कनेक्टिविटी के विस्तार से पर्वतीय क्षेत्रों में आर्थिक सुधार की उम्मीद की जा रही है। माना जा रहा है कि रेल, हवाई और रोड कनेक्टिविटी के विस्तार से पहाड़ में विकास गति पकड़ेगा और लोगों के आजीविका के साधन जुटेंगे। सोलर, होम स्टे और उद्यानिकी से जुड़ी योजनाओं के जरिये भी रिवर्स पलायन की कोशिशों में जुटी है।